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पाकिस्तान की नई सरकार के सामने बड़ी चुनौतियां

हारून जंजुआ (इस्लामाबाद से)
२० फ़रवरी २०२४

पाकिस्तान में 2024 चुनाव के नतीजे राजनीति में अस्थिरता के साथ आर्थिक परेशानी और आतंकवाद के बढ़ाने की ओर इशारा कर रहे हैं. नई गठबंधन सरकार इनका जरूरी हल निकालने में कमजोर नजर आ रही है.

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पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज के नेता और पूर्व प्रधानमंत्री शाहबाज शरीफ.
पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज (पीएमएल-एन) ने पूर्व प्रधानमंत्री शाहबाज शरीफ को नई सरकार का नेतृत्व करने के लिए नामांकित किया है. शाहबाज, नवाज शरीफ के छोटे भाई हैं. तस्वीर: K.M. Chaudary/AP/picture alliance

पाकिस्तान की राजनीति में दो पारंपरिक प्रतिद्वंद्वी दलों ने एक गठबंधन सरकार बनाने का एलान किया. संसदीय चुनाव के नतीजे आने के बाद से ही पाकिस्तान जिस राजनीतिक गतिरोध का सामना कर रहा था, उन पर भी विराम लगा. संसदीय चुनाव के नतीजों में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिल पाया था.

पाकिस्तान मुस्लिम लीग नवाज (पीएमएल-एन) के प्रमुख और तीन बार प्रधानमंत्री रह चुके नवाज शरीफ ने कहा कि पाकिस्तान पीपल्स पार्टी (पीपीपी) और कुछ अन्य छोटे दलों के साथ मिलकर गठबंधन सरकार चलाई जाएगी. ये पार्टियां 265 सदस्यों के साथ साथ मिलकर संसद में बहुमत से शासन करेंगी.

पीएमएल-एन ने पूर्व प्रधानमंत्री और नवाज शरीफ के छोटे भाई शाहबाज शरीफ को नई सत्ता की बागडोर सौंपने के लिए नामित किया है. नई गठबंधन सरकार 2022 में हुए गठबंधन की तरह ही है, जिसने तत्कालीन प्रधानमंत्री इमरान खान को सत्ता से बेदखल कर दिया था और चुनाव कराने के लिए कार्यवाहक प्रशासक के तौर पर 16 महीने तक देश पर शासन किया था.

कमजोर और अस्थिर शासन

ब्रुकिंग्स इंस्टिट्यूशन में फेलो मदीहा अफजल कहते हैं कि यह गठबंधन सरकार कमजोर और अस्थिर लग रही है क्योंकि पीएमएल-एन और पीपीपी के बीच अभी भी टकराव और असहमति दिख रही है. बीते 16 महीनों के शासनकाल में सेना को लेकर इनके अलग-अलग मत सामने आए थे. इसकी वजह से सुरक्षा स्थितियां भी खराब होती गईं और आर्थिक परेशानियां भी बढ़ीं. यही कारण है कि उनके अगले कार्यकाल में भी ताकत और आत्मविश्वास नहीं नजर आ रहा है.

पीपीपी ने कहा है कि इस बार वह मंत्री परिषद में शामिल नहीं होगी और मुद्दों के आधार पर प्रधानमंत्री को समर्थन देगी. इससे गठबंधन के पिछली बार से भी अधिक कमजोर होने के कयास लग रहे हैं. विश्लेषकों का मानना है कि अगर पीपीपी किसी भी मंत्रालय को नहीं चुनेगी, तो शासन में अल्पमत प्रभुत्व रखेगी, जबकि इस समय आर्थिक मामलों से लेकर राजनीतिक अस्थिरता और आतंकवाद बढ़ने की चुनौतियां तेजी से बढ़ रही हैं.

पाकिस्तान की आर्थिक दुर्दशा

हाल के वर्षों में पाकिस्तान गहरे आर्थिक संकट का सामना कर रहा है. भ्रष्टाचार, कोरोना महामारी का प्रबंधन, वैश्विक ऊर्जा संकट और प्राकृतिक आपदाओं ने अर्थव्यवस्था पर भारी असर डाला है. कई पाकिस्तानियों ने अपने वेतन में भी भारी गिरावट देखी है. देश की गरीब जनता को जरूरी सामानों में बढ़ते दाम का बोझ उठाना पड़ रहा है. कई लोग मूलभूत जरूरतें भी नहीं पूरी कर पा रहे हैं. खाने का सामान खरीदना और बिजली के बिल भरना भी कई लोगों के लिए मुश्किल हो रहा है.

विदेशी कर्ज और भुगतान संतुलन से निपटने के लिए पाकिस्तान सरकार ने बीते वर्ष अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के साथ तीन अरब डॉलर का समझौता किया था. इस समझौते ने बहुत हद तक सरकार को राहत दी थी, लेकिन अब वैश्विक कर्ज चुकाने के लिए अनुबंध को बढ़ाने की दिशा में कर्जदाताओं से बातचीत के लिए नई सरकार को अपनी कमर कसनी होगी. अपेक्षित नतीजे पर पहुंचने के लिए कड़े उपाय अपनाने होंगे.

आर्थिक विश्लेषक फरहान बुखारी ने डीडब्ल्यू को बताया, "पाकिस्तान के आर्थिक इतिहास में यह बेहद मुश्किल समय है. चुनी गई सरकार नए आईएमएफ कर्ज को हासिल करने के लिए कई नापसंद विकल्प भी अपनाने को मजबूर होगी." सरकार के इन फैसलों से निकट भविष्य में जनता के बीच आक्रोश भड़क सकता है. आने वाली सरकार के पास तात्कालिक राहत का कोई समय नहीं मिलेगा.

हालांकि पीएमएल-एन के नेता और पूर्व मंत्री एहसान इकबाल ने नई सरकार में अर्थव्यवस्था दुरुस्त कर स्थिरता लाने के प्रति आत्मविश्वास जताया है. उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया ,"पिछले 16 महीने का कार्यकाल गठबंधन सरकार का प्रमाण है कि हमने देश को दिवालिया होने से बचाने के साथ अर्थव्यवस्था को स्थिर करने की ओर कदम बढ़ाया है."

क्या उम्मीदों पर खरी उतरेगी नई सरकार?

हर कोई इसे लेकर आशान्वित नहीं है. विल्सन सेंटर में दक्षिण एशिया के निदेशक माइकल कूगेलमन का कहना है कि इस गठबंधन में नए सुधारों  को आगे बढ़ाने की राजनीतिक गुंजाइश नहीं होगी. साथ ही, आईएमएफ के कर्ज को पाने के लिए दायित्वों को पूरा करने में सरकार खर्च कटौतियों पर मुश्किल से ही आगे बढ़ पाएगी. कूगेलमन बताते हैं, "उनका मुख्य ध्यान राहत प्रोत्साहन पैकेज और अधिक निवेश को अपनी ओर आकर्षित करना होगा. वहीं, सेना नए सुधारों को देखने की ओर आशान्वित रहेगी. साथ ही स्पेशल इन्वेस्टमेंट फैसिलिटेशन काउंसिल (सीआईएफसी) के जरिए नए निवेश लाने की भी कोशिश होगी, लेकिन राजनीतिक वास्तविकताएं इसे कठिन बनाएंगी."

संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान की पूर्व प्रतिनिधि मलीहा लोधी भी कुछ इसी तरह के विचार रखती हैं. उन्होंने कहा, "इस सरकार की सबसे बड़ी परीक्षा अर्थव्यवस्था ही है. अभी भी यह स्पष्ट नहीं है कि गठबंधन सरकार, अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए कठिन निर्णय लेने में सहयोगी दलों का समर्थन जुटा पाएगी या नहीं." यह एक बड़ा सवाल है कि सरकार संसद कैसे चलाएगी क्योंकि इमरान खान की पार्टी के सदस्य इसमें एक बड़ा रोड़ा बन सकते हैं.

इमरान खान वर्तमान में भ्रष्टाचार और आपराधिक आरोपों के चलते जेल में हैं. उनकी पार्टी तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआई) को भी चुनाव लड़ने से प्रतिबंधित कर दिया गया था. पार्टी के सदस्य स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में खड़े हुए, लेकिन पूर्व प्रधानमंत्री की प्रसिद्धि के चलते स्वतंत्र उम्मीदवारों को भी उम्मीद से अधिक समर्थन मिला. इसके बाद संसद में पीटीआई समर्थित 93 विधि निर्माता सदस्य चुनकर सामने आए. पीटीआई ने दावा किया है कि चुनाव के दिन मतदान रोकने के लिए हिंसा और धांधली की कोशिश भी की गई थी, ताकि पार्टी को बहुमत सीटें न मिल पाएं. पार्टी ने देशव्यापी विरोध-प्रदर्शन की अपील की.

कूगेलमन ने कहा कि नई गठबंधन सरकार धांधली के आरोपों पर अधिक ध्यान नहीं दे रही है और शायद पश्चिम से भी इसके प्रति जांच के लिए अधिक दबाव नहीं झेलना पड़ेगा, लेकिन इस मामले में निष्क्रियता सरकार विरोधी प्रदर्शनों को भड़का सकती है.

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बढ़ता आतंकवाद

आर्थिक उतार-चढ़ाव और राजनीतिक स्थिरता के अलावा पाकिस्तान को सुरक्षा के मोर्चे पर बढ़ती चुनौतियों को सामना करना पड़ रहा है. तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) और तथाकथित इस्लामिक स्टेट की हिंसक गतिविधियां बढ़ रही हैं. विशेषतौर पर खैबर पख्तूनख्वा और बलूचिस्तान में इसका व्यापक असर भी दिख रहा है. ईरान और अफगानिस्तान के साथ भी सीमा पर तनाव लगातार बढ़ रहा है.

मलीहा लोधी का कहना है कि नई सरकार को बढ़ती आतंकवादी गतिविधियों और अन्य सुरक्षा चुनौतियों से निपटने के लिए देश के ताकतवर सैन्य प्रतिष्ठान के साथ मिलकर कोई हल निकालना होगा. वहीं, कूगेलमन का मानना है कि सुरक्षा चुनौतियों का समाधान काफी हद तक सेना के प्रयासों पर निर्भर करेगा. वह कहते हैं, "यदि नागरिक सरकार और सैन्य नेतृत्व का आपस में बेहतर तालमेल बनता है, तो इसमें सफलता की संभावनाएं भी मजबूत होंगी, कम-से-कम शुरुआत में तो सहमति बन ही सकती है. किसी बड़े आतंक विरोधी अभियान के लिए व्यापक जन समर्थन का लक्ष्य होगा, तो वह राह मुश्किल होगी क्योंकि नई सरकार अचानक अलोकप्रिय नहीं होना चाहेगी."