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पूर्वोत्तर में जलवायु परिवर्तन के असर से निपटने की पहल

प्रभाकर मणि तिवारी
२४ मार्च २०२३

भारत के कई इलाके जलवायु परिवर्तन की मार झेलने लगे हैं. लेकिन उससे निपटने की चेतना अभी बहुत कम राज्यों में दिखती है. क्या पूर्वोत्तर भारत बाकी देश को राह दिखा सकेगा?

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चेरापूंजी के पास एक झरना
तस्वीर: Prabhakar Mani Tewari/DW

पूर्वोत्तर भारत पर देश के बाकी हिस्सों के मुकाबले ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन का प्रतिकूल असर कुछ साफ नजर आने लगा है. इलाके के तमाम राज्यों में बेमौसम की बरसात, भयावह बाढ़, भूस्खलन, असम चाय की पैदावार व गुणवत्ता में कमी और दुनिया के सबसे नम इलाके वाले मेघालय में पीने के पानी की कमी जैसे मामले इसका सबूत हैं. पूर्वोत्तर इलाका अपनी जैव-विविधता के लिए पूरी दुनिया में मशहूर है. लेकिन मौसम के बदलते मिजाज की वजह से दुर्लभ किस्म की कई वनस्पतियों का अस्तित्व खत्म होने की कगार पर पहुंच गया है.

जलवायु परिवर्तन से सबसे ज्यादा खतरा अमेरिका, चीन और भारत कोः रिपोर्ट

लेकिन इसके साथ ही इलाके के कुछ राज्यों ने इस कुप्रभाव से निपटने की दिशा में ठोस पहल की है. पहले मणिपुर सरकार ने जलवायु परिवर्तन पर स्टेट एक्शन प्लान तैयार किया और अब मेघालय ने बृहस्पतिवार को पहली बार एक क्लाइमेट एक्शन बजट पेश किया है. जलवायु परिवर्तन से होने वाले प्रतिकूल असर से निपटने के लिए वर्ष 2023-24 के लिए इस बजट में 3,412 करोड़ का प्रावधान किया गया है जो कुल बजट आवंटन का 15 फीसदी है.

मेघालय के मुख्यमंत्री कोनराड संगमा
मेघालय के मुख्यमंत्री कोनराड संगमातस्वीर: David Talukdar/NurPhoto/picture alliance

'क्लाइमेट एक्शन बजट'

मेघालय के मुख्यमंत्री कोनराड संगमा कहते हैं, "सरकार क्लाइमेट के एजेंडा की गंभीरता पर ध्यान दे रही है. इसी वजह से कुल बजट का 15 फीसदी हिस्सा इस मद में आवंटित किया गया है. मेघालय की पारिस्थितिकी बेहद नाजुक है और राज्य के लाखों लोगों की आजीविका प्रकृति पर निर्भर है.”

संगमा के मुताबिक, फिलहाल सरकार पर्यावरणीय स्थिरता, वन प्रबंधन और जल संचयन से जुड़ी परियोजनाओं पर ध्यान केंद्रित कर रही है. राज्य में इनसे संबंधित करीब ढाई हजार करोड़ की परियोजनाओं पर काम चल रहा है. इसके अलावा जल संचयन के लिए वर्ष 2023-24 के दौरान राज्य के तीन सौ स्थानों पर ढाई करोड़ की लागत से आधारभूत ढांचा तैयार किया जाएगा.

मौसम बदलने से फसलों की पैदावार प्रभावित हो रही है
मौसम बदलने से फसलों की पैदावार प्रभावित हो रही हैतस्वीर: DW

राज्य सरकार वन क्षेत्र बढ़ाने पर भी खास ध्यान दे रही है. बजट में कहा गया है कि बीते पांच वर्षों के दौरान दस हजार हेक्टेयर नए वन क्षेत्र के लिए 88 लाख पौधे लगाए गए हैं. इसके अलावा ग्रीन मेघालय परियोजना के तहत वन संरक्षण के लिए स्थानीय लोगों को प्रोत्साहित करने के लिए नकदी समेत कई तरह की सुविधाएं दी जा रही हैं. चालू वित्त वर्ष के दौरान 16 हजार हेक्टेयर वन क्षेत्र के लिए 13 करोड़ से ज्यादा की रकम खर्च की जा चुकी है. संगमा ने बताया कि सरकार इस परियोजना के तहत अगले पांच वर्षों को दौरान पचास हजार हेक्टेयर वन क्षेत्र को संरक्षित करना चाहती है. इस पर ढाई सौ करोड़ रुपये खर्च किए जाएंगे.

दूसरे राज्य भी प्रभावित

भारतीय तकनीकी संस्थान (आईआईटी) गुवाहाटी के एक अध्ययन में इलाके के जिन तीन राज्यों को जलवायु परिवर्तन के प्रति सबसे ज्यादा संवेदनशील बताया गया है उनमें मेघालय के अलावा असम भी शामिल है. इस अध्ययन रिपोर्ट में कहा गया है कि असम के चाय बागान वाले इलाकों मे बीते कुछ वर्षों से बेमौसम भारी बरसात हो रही है. इसकी वजह से चाय के पौधे पानी में डूब जाते हैं और उपजाऊ मिट्टी बह जाती है. जलवायु परिवर्तन की वजह से बीते दो दशकों के दौरान राज्य में अधिकतम तापमान में 0.049 डिग्री सेंटीग्रेड की वृद्धि हुई है जबकि इसी दौरान औसत बारिश 10.77 मिमी कम हुई है. इसका असर दुनिया भर में मशहूर असम चाय की पैदावार और गुणवत्ता पर नजर आने लगा है.

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दूसरी ओर, मणिपुर सरकार ने भी जलवायु परिवर्तन पर अपनी कार्ययोजना मणिपुर स्टेट एक्शन प्लान ऑन क्लाइमेट चेंज के दूसरे संस्करण का मसौदा तैयार किया है. इसमें खेती और इसके सहायक क्षेत्रों मसलन जल संसाधन, वन संसाधन और स्वास्थ्य को शामिल किया जाएगा.

झूम यानी हर साल-दो साल में जगह बदल कर ढलवां सीढ़ीदार जगह पर होने वाली खेती की पूर्वोत्तर भारत में सदियों पुरानी परंपरा रही है. इलाके की भौगोलिक बसावट भी इसके लिए मुफीद रही है. लेकिन अब इसे भी जलवायु परिवर्तन के असर के तेज करने के लिए जिम्मेदार माना जा रहा है.

असम की चाय पर भी जलवायु परिवर्तन की मार
असम की चाय पर भी जलवायु परिवर्तन की मारतस्वीर: Prabhakar Mani Tewari/DW

पूर्वोत्तर भारत में ग्लोबल वार्मिंग का खतरा बढ़ाती झूम खेती की परंपरा

असम, नागालैंड, मणिपुर, मेघालय और मिजोरम में लगभग 5,298 वर्ग किलोमीटर इलाके में इस तरह से खेती होती है और इससे करीब पांच लाख लोग जुड़े हैं. तमाम आदिवासी समूह यही तरीका अपनाते हैं. पर्यावरणविदों का कहना है कि झूम की खेती के कारण ही इलाके में जमीन धंसने की घटनाएं भी बढ़ रही हैं. मणिपुर विश्वविद्यालय में मानव और पर्यावरण विज्ञान स्कूल के डीन प्रोफेसर ईबोतोम्बी सिंह कहते हैं, "झूम की खेती को खासकर हाईवे और रेलवे लाइन के नजदीक इलाकों से अन्यत्र शिफ्ट किया जाना चाहिए."

मणिपुर के मौसम विज्ञानी डॉ केडी सिंह कहते हैं, "जलवायु परिवर्तन का इलाके की जैव विविधता पर असर साफ नजर आने लगा है. अरुणाचल प्रदेश के अपर सियांग जिले में अब जाड़े के दिनों में भी आम फलने लगे हैं. यह एक नई बात है. मौसम के बदलते मिजाज की वजह से इलाके में कई दुर्लभ वनस्पतियों का अस्तित्व खत्म होने की कगार पर पहुंच गया है.”

पर्यावरणविदों का कहना है कि इलाके के तमाम राज्यों को समय रहते जलवायु परिवर्तन से पैदा होने वाले खतरों से निपटने की दिशा में ठोस पहल करनी चाहिए.